उत्तराखंड में हरेला पर्व क्यों मनाया जाता है

हरेला (पर्व)
मूल रूप से उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र में मनाया जाने वाला त्यौहार
उत्तराखंड के पहाड़ की संस्कृति और इसके त्योहारों का प्रकृति के साथ खास रिश्ता है. त्योहारों के इन्हीं रिश्ते की डोर से पहाड़ का जनमानस जुड़ा हुआ है. इनमें से ही एक त्योहार है हरेला पर्व हरियाली का प्रतीक है हरेला लोकपर्व न सिर्फ एक पर्व है बल्कि एक ऐसा अभियान है, जिससे जुड़कर तमाम प्रदेशवासी बरसों से संस्कृति और पर्यावरण दोनों को संरक्षित करते आ रहे हैं.
कुमाऊं क्षेत्र में सामाजिक रूप से अपना विशेष महत्व रखता है और कुमाऊं का यह अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है जिस वजह से इस क्षेत्र में यह त्यौहार अत्यंत धूमधाम के साथ मनाया जाता है जिसका साल भर लोगों को इंतजार रहता है श्रावण मास भगवान शंकर का अत्यंत प्रिय मास है, इसलिए हरेले के इस पर्व को कुमााऊं के कुछ क्षेत्रों मे हर-काली के नाम से भी जाना जाता है।

कुछ क्षेत्रों में इस पर्व को शिव पार्वती के विवाह के रूप में भी मनाया जाता है कुमाऊं में इस दिन सांस्कृतिक आयोजन के साथ ही पौधारोपण भी किया जाता है। जिसमें लोग माऊंनी परिवेश में विभिन्न प्रकार के छायादार व फलदार पौधे रोपते हैं। हरेला काटने से एक दिन पूर्व शाम को हरेले की पूजा की पूजा की जाती है और घर में मिट्टी से शिव पार्वती गणेश उनकी दोनों पत्नियां रिद्धि सिद्धि की प्रतिमाएं बनाई जाती हैं और उन्हेंं रंगों से रंग कर और खूबसूरत वस्त्र पहना कर सजाया जाता है।
इनको कुमाऊंनी भाषा में डिकरे या डिकारे कहा जाता है। इनकी पूजा विधि-विधान से की जाती है और नैवेद्य के रूप में फल या अन्य खाद्य पदार्थ चढ़ाए जाते हैं। इस पूजा के दसवें रोज हरेला काटा जाता है और हरेला काटने के समय विधि विधान के साथ पूजा अर्चना की जाती है और नैवेद्य के रूप में कुमाऊं के प्रसिद्ध पकवान सूजी दही और चीनी को मिलाकर देसी घी में बनाए गए पूए और सिंंगल शिव परिवार को चढ़ाए जाते हैं।

हरेले को काटकर घर के बुजुर्ग परिवार के सभी सदस्यों को टीका लगाते हैं और हरेला आशीर्वाद स्वरूप उनके सिर और कान मेंं रखते हैं और उनकी सुख समृद्धि दीघार्यु और स्वस्थ रहने की कामना के साथ आशीर्वाद देते हैं और रिश्तेदारों को डाक से हरेला आशीर्वाद के रूप में भी भेजे जाने की परंपरा है

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