स्वास्थ्य लोकतंत्र की दुहाई देता निर्वाचन लेकिन मतदान से उठता भरोसा, नोटा और बायकॉट वोटिंग के आंकड़े करते हैं सोचने को मजबूर

भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के महापर्व में मतदान के रूप में दी जाने वाली हर नागरिक की आहुति जरूरी हैं लेकिन फिर क्या जब वही लोग इस पर्व से मुंह मोड़ने लगे। मतदान ना करना और कुछ हद तक नोटा का इस्तमाल भी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था की नीव ढीली करने का काम करता है। ऐसा ही कुछ उत्तराखंड में पिछले कुछ चुनाव में देखने को मिला है जहां पर केवल सरकारों के नकरापन के चलते जनता नोटा और उससे भी आगे बढ़कर इलेक्शन बाय कोर्ट का फैसला लेते आ रहे हैं।

स्वस्थ लोकतंत्र के लिये कोड़ जेसा चुनाव बहिष्कार

भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है और इसे लोकतंत्र की खूबसूरती है यहां के लोग और उनके द्वारा किए जाने वाला मतदान लेकिन इस खूबसूरती में इलेक्शन बॉयकॉट एक बड़े वायरस जैसा है जो की परेशान मतदाता को नेताओं की झूठे वादों के चलते मतदान न करने का फैसला लेने पर मजबूर होता है। विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्तराखंड राज्य में खासतौर से पहाड़ी राज्य में मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसती जनता की जब सारी उम्मीदें टूट जाती हैं तो जनता को मतदान करना भी व्यर्थ लगता है। यही वजह है कि पब्लिक की जब सुनवाई नहीं होती है तो वह अपना पूरा गुस्सा मतदान के दौरान निकलती है और यदि इस प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिला तो निश्चित तौर से यह पूरे लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती होगा।

पिछले चुनाव में 14 जगहों पर 800 लोग नही आये वोट देने

लोकसभा चुनाव 2024 का बिगुल बच चुका है चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है ऐसे में अब निर्वाचन की पूरी कोशिश है कि वह ज्यादा से ज्यादा लोगों को मतदान बूथ तक लेकर आए लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव 2019 पर अगर नजर डालें तो कई ऐसे गांव थे जहां पर लोगों ने सामूहिक रूप से चुनाव बहिष्कार का फैसला लिया। ग्रामीण क्षेत्रों में पूरे के पूरे पोलिंग बूथ खाली लौट कर आए। लोकसभा चुनाव 2019 में 14 मतदान स्थल ऐसे थे जहां पर एक भी मतदाता वोट देने नहीं आया और यहां से ईवीएम मशीन खाली ऑफिस आयी। चुनाव का बायकाट करने वाले मतदान स्थल टिहरी में दो चमोली में तीन नैनीताल में एक बागेश्वर में दो अल्मोड़ा में एक चंपावत में दो और पिथौरागढ़ में तीन कुल मिलाकर 14 पोलिंग स्टेशन ऐसे थे जहां पर तकरीबन 800 लोगों ने सामूहिक रूप से चुनाव का बहिष्कार किया। यही नहीं लोकसभा चुनाव के बाद 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में भी प्रदेश के कई अलग-अलग इलाकों में लोगों ने मूलभूत और सुविधाओं के अभाव में चुनाव का बहिष्कार किया।

इस चुनाव भी कई जगह से चेतावनी

चुनाव बहिष्कार की कहानी केवल इत्तेफाक नहीं है बल्कि लगातार मूलभूत संसाधनों का मुंह ताकते मतदाता लगातार उत्तराखंड में ऐसा करते आ रहे हैं। इस लोकसभा चुनाव के लिए जहां एक तरफ से निर्वाचन आयोग और राजनीतिक दल एक बड़े महापर्व की तरह तैयारी में जुटे हुए हैं लेकिन यही मौका सुविधाओं में रह रही है मतदाताओं को भी बेहतर लग रहा है की चुनाव में अपने मत का प्रयोग ना करके शायद वह किसी का ध्यान खींच पाए। उत्तराखंड में इस वक्त टिहरी गढ़वाल के मशहूर पर्यटक स्थल धनोल्टी के पास गांव गोठ और खनेरी के ग्रामीण लंबे समय से सड़क की मांग कर रहे है लेकिन आज तक मांग पूरी नहीं हुई और ग्रामीण 4 किमी पैदल दूरी और मरीजों को पगडंडी में ले जाने को मजबूर है लेकिन अब ग्रामीणों ने चेतावनी दी है की मांग पूरी नहीं हुई तो चुनाव का भी बहिष्कार करेंगे। इसके अलावा इसके अलावा कर्मप्रयाग में ग्राम सभा किमोली पारतौली में भी ग्रामीण सड़क नही तो वोट नहीं का नारा दे रहे हैं।

पिछले चुनाव में 50 हजार लोगों ने दबाया NOTA का बटन

केवल चुनाव बहिष्कार ही नहीं बल्कि Nota का विकल्प भी लोगों के अंदर पनप रही खीज को बताता है जो कि दिखता है कि किस तरह से मतदाता का राजनीतिक दलों के ऊपर से भरोसा उठ चुका है। पिछले लोकसभा चुनाव 2019 के चुनाव परिणाम पर अगर बारीकी से नजर दुदाई जाए तो उत्तराखंड की पांचो लोकसभा सीटों पर तकरीबन 50 हजार लोगों ने Nota का विकल्प चुनाव जो की दिखता है कि लोग किसी भी प्रत्याशी से खुश नहीं है।

टिहरी गढ़वाल लोकसभा में 6276 लोगों ने चुना NOT
पौड़ी गढ़वाल लोकसभा में 12276 लोगों ने चुना NOTA
अल्मोड़ा लोक सभा सीट पर 15311 लोगों ने चुना NOTA
नैनीताल लोकसभा सीट पर 10608 लोगों ने चुना NOTA
हरिद्वार लोकसभा सीट पर 6281 लोगों ने चुना NOTA

इस तरह से पिछले लोकसभा चुनाव में 50752 लोगों ने नोट का विकल्प चुना यानी की साफ है कि चुनाव में उतरे प्रत्याशियों से मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा खुश नहीं था लेकिन उसको बावजूद भी इस बार जीते हुए प्रत्याशियों में अगर बात करें तो टिहरी और अल्मोड़ा सीट पर वही प्रत्याशी मैदान में है इसे राजनीतिक दलों का मतदाताओं के प्रति जवाब देही का भी अंदाजा लगाया जा सकता है।

हर साल चुनाव में घट रहा मत पर्तिशत

चुनाव बहिष्कार और Nota के अलावा मतदाताओं का चुनावी प्रक्रिया के प्रति रुझान का मतदान प्रतिशत से भी अंदाजा लगाया जा सकता है। उत्तराखंड में अगर विधानसभा चुनाव की बात करें तो 2012 के विधानसभा चुनाव में अब तक का सबसे अधिकतम मतदान प्रतिशत 66.85% रहा था। उसके बाद 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में हुए मतदान में केवल 65.6% लोगों में वोट दिए। वही इसके बाद आखिरी विधानसभा चुनाव 2022 में यह मतदान और कम होकर 65.4% ही रह गया। लोकसभा चुनाव की बात करें तो पिछले लोकसभा चुनाव 2019 में उत्तराखंड में 57.09% मतदान हुआ। एसएमएस नजर लगाए जा सकता है कि समय के साथ-साथ जहां संचार के माध्यम बढ़ रहे हैं लोग अधिक शिक्षित हो रहे हैं और जन जागरूकता के भी व्यापक साधन इस्तेमाल में ले जा रहे हैं लेकिन उसके बावजूद भी पिछले चुनाव में इलेक्शन टर्न आउट आंकड़े बताते हैं कि किस तरह से लोग कम मतदान कर रहे हैं।

असहाय हुआ निर्वाचन, सरकार के नकरापन का शिकार

राज्य में लगातार चुनाव आविष्कार नोट के बढ़ते आंकड़े और मतदान के काम होते आंकड़ों पर जब मुख्य निर्वाचन अधिकारी से सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि निर्वाचन की पूरी कोशिश है कि अधिक से अधिक लोगों को मतदान के लिए प्रेरित किया जाए उनको सुविधा दी जाए और पूरी तरह से जन जागरूकता अभियान चलाया जाए। हालांकि इलेक्शन बॉयकॉट के सवाल पर उन्होंने कहा कि उनके द्वारा लगातार लोगों को समझने का प्रयास किया जा रहा है कि उनकी जो समस्या है उसका समाधान वोट ना देना नहीं है लेकिन आज जनता भी समझदार है। बरहाल निर्वाचन आयोग की कोशिश है कि इलेक्शन बायकाट कर रहे लोगों की समस्याओं का किसी तरह से निराकरण निकाल कर उन्हें मतदान करने के लिए बना दिया जाए हालांकि मतदान के दिन क्या हालात होते हैं यह देखने वाली बात होगी।

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